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जिंदगी ओ जिंदगी

                
                                                         
                            जिंदगी ओ जिंदगी
                                                                 
                            
ओ जिंदगी तुम मेरे हिस्से में आयी हूर हो
पर फिर भी मुझसे क्यों इतनी दूर हो?
ओ जिंदगी तुम क्या हो?
सांसों की अनवरत सरगम हो?
याकि धड़कनों की अथक तान हो?
जन्म से मृत्यु तक चलने वाला सफर हो?
खुश नाखुश जिस पर चलता हर बशर है
बचपन जवानी बुढ़ापे की सवारी हो?
याकि ईलाज-लाईलाज रोगों की अय्यारी हो?
मां की गोद में सुनी जाने वाली लोरियाँ हो?
याकि शिक्षक की बेंत से लाल होती हथेली हो?
या फिर सजती संवरती दुल्हन नयी नवेली हो?
मात-पिता मित्र बंधुओं के रिश्तों की जकड़ हो?
या रूपैया पैसा जमीन जायदाद मान सम्मान की अकड़ हो?
इच्छाओं की एक के बाद एक खड़ी होती फसल हो?
याकि नकली संसार को अर्थ देने का एक प्रयास असल हो?
तुम ही कह दो जिंदगी कि तुम क्या हो?
मुझे मालूम है कि तुम कुछ न कहोगी।
मैं कुछ भी कहूँ तुम सिर्फ हां जी हां जी करोगी।
ओ मेरी रहस्यमयी अंतरंग सहेली!
क्या तू उम्र भर ही बनी रहेगी पहेली?
कुछ तो कहो जिंदगी ओ जिंदगी।
तुम क्या हो जिंदगी ओ जिंदगी?

Dr S M Jain

- हमें विश्वास है कि हमारे पाठक स्वरचित रचनाएं ही इस कॉलम के तहत प्रकाशित होने के लिए भेजते हैं। हमारे इस सम्मानित पाठक का भी दावा है कि यह रचना स्वरचित है। 

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4 वर्ष पहले

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