भास्कर ओपिनियन:अमेरिका, रूस, जर्मनी हो या ब्रिटेन- काहे के विकसित देश, जहां महिलाओं की भावनाओं का सम्मान नहीं!

2 वर्ष पहले
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ब्रिटिश राजशाही से आजाद होने के बाद अमेरिका में पहला राष्ट्रपति चुनाव 7 जनवरी 1789 में हुआ था। जॉर्ज वॉशिंगटन पहले राष्ट्रपति चुने गए थे। तब वोट का अधिकार केवल उन गोरों को था, जिनके पास बहुत ज्यादा संपत्ति थी। हैरत की बात यह है कि भारत जैसे विकासशील देशों से खुद को बहुत ऊपर और अत्याधुनिक मानने वाले इस कथित विकसित देश में महिलाओं को वोट का अधिकार 1920 में दिया गया। यानी चुनाव प्रक्रिया शुरू होने के 131 साल बाद।

सवा सदी तक यह नामी विकसित देश महिलाओं को शोषित करता रहा और उसने, उन्हें अपनी आवाज तक उठाने की इजाजत नहीं दी। यही नहीं, रूस, जर्मनी के साथ वह ब्रिटेन भी जिसके राज में कहते हैं कभी सूरज नहीं डूबता था, वहां भी महिलाओं के सम्मान का सूरज वर्षों डूबा रहा। लोकतंत्र की स्थापना और स्वतंत्र चुनाव की प्रक्रिया शुरू होने बाद इन सभी तथाकथित विकसित देशों ने भी महिलाओं को वोट का अधिकार देने में वर्षों लगा दिए।

24 जून 2022 को अमेरिकी सुप्रीम कोर्ट ने महिलाओं को 50 साल पहले मिली अबॉर्शन की संवैधानिक सुरक्षा खत्म कर दी थी। उसके बाद से वहां लगातार प्रदर्शन हो रहे हैं।
24 जून 2022 को अमेरिकी सुप्रीम कोर्ट ने महिलाओं को 50 साल पहले मिली अबॉर्शन की संवैधानिक सुरक्षा खत्म कर दी थी। उसके बाद से वहां लगातार प्रदर्शन हो रहे हैं।

कुल मिलाकर इन विकसितों से हम विकासशील अच्छे। भारत में स्वतंत्रता के साथ ही महिलाओं को पूरी तरह पुरुषों की बराबरी का दर्जा दिया गया और पहले चुनाव से ही उन्हें वोट का भी पूरा अधिकार दिया गया जो आज तक लागू है और आगे भी रहेगा। भारत हर क्षेत्र में महिलाओं की भागीदारी बढ़ाने और उन्हें बराबरी का दर्जा देने में विश्वास रखता है, क्योंकि वह महिला शक्ति को दैवी शक्ति मानता है।

सही भी है जो जन्म दे सकती है वह देवी न हुई तो और क्या है? लेकिन दुनिया के थानेदार बने घूम रहे कुछ विकसित देशों को कौन समझाए कि जहां महिलाओं और उनकी भावनाओं का सम्मान नहीं होता वहां का समाज आखिरकार पंगु ही होता है। नहीं है तो होता जाता है।

बात दरअसल यह है कि अमेरिका ने हाल ही में महिलाओं से गर्भपात का वह अधिकार छीन लिया जो पिछले पचास सालों से उनके पास था। वहां के सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले का भारी विरोध हो रहा है, लेकिन कोर्ट को कोई फर्क नहीं पड़ रहा है, बल्कि कुछ चर्च जो इतिहास में कई विवादों के आरोपी रह चुके हैं, मानवीयता के नाम पर इस फैसले का समर्थन कर रहे हैं।

उन्हें भ्रूण में मानवीयता नजर आ रही है, लेकिन मां के प्रति मानवीयता देखने की दृष्टि उनके पास नहीं है। वैसे भी पश्चिम में चर्च के अत्याचारों से इतिहास भरा पड़ा है इसलिए उनके समर्थन या विरोध से कोई फर्क नहीं पड़ने वाला। अमेरिकी नागरिक इस फैसले का कड़ा विरोध कर रहे हैं और निश्चित रूप से राष्ट्रपति जो बाइडेन को यह बहुत महंगा पड़ने वाला है।

राष्ट्रपति जो बाइडेन ने अबॉर्शन की आजादी खत्म करने को दुखद बताते हुए कहा था- कोर्ट ने जो किया है वो कभी नहीं हुआ। यह फैसला अमेरिका को 150 साल पीछे धकेलने वाला है।
राष्ट्रपति जो बाइडेन ने अबॉर्शन की आजादी खत्म करने को दुखद बताते हुए कहा था- कोर्ट ने जो किया है वो कभी नहीं हुआ। यह फैसला अमेरिका को 150 साल पीछे धकेलने वाला है।

राष्ट्रपति बनने से पहले वे महिलाओं के इस अधिकार के रक्षक बनकर उभरे थे। सत्ता पाते ही उनके विचार बदल गए। जाने क्यों सत्ता पाते ही व्यक्ति वो नहीं रह जाता जो वाकई में वह होता है। सबसे बड़ी हैरत की बात है कि अमेरिका में महिला विरोधी वह कानून अभी भी है, जिसके तहत रेप के बाद पुरुष पीड़िता से रेपिस्ट पैरेंटल राइट के अधीन बच्चे की मांग कर सकता है। यहां किसी चर्च को मानवीयता दिखाई नहीं देती।

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